हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

सोमवार, 16 जनवरी 2012

ग़ालिब की ज़मीन ( आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना ) पर शायर क्लब फेसबुक में में एक तरही ग़ज़ल


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बस कि तक़दीर है हिन्दू या मुसलमां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

तेरा शेवा है मेरे क़त्ल का सामां होना
मेरा हासिल है तेरा ज़ूद - पशेमां होना

ऐसा लगता है किसी दश्त का शहज़ादा हूँ 
इतना अच्छा भी नहीं घर का बयाबाँ होना

थोड़े ख़ुदसर हैं  मगर दिल से हमारे हैं वो  
उनके इक़रार का पहलू है गुरेज़ाँ होना

ये सियहबख़्त ज़मीं शाम ढले देखेगी 
शब की दहलीज़ पे खुर्शीद का उरियाँ होना

घर मकानो में जो तब्दील हुये इस तरह   
फिर तो लाज़िम है मेरे शहर का ज़िन्दां होना      

कर्बला !! मैं भी यज़ीदों से घिरा हूँ हर सूँ
मुझको मालूम है क्या शै है मुसलमाँ होना

मयंक अवस्थी  

मयस्सर –उपलब्ध
शेवा – शैली style
हासिल – उपलब्धि
ज़ूद –पशेमा – जल्द प्रायश्चित  करने वाला
दश्त – निर्जन
ख़ुदसर –ज़िद्दी
इकरार – सहमति -
गुरेज़ाँ- निस्पृह
सियहबख़्त – काले भाग्य वाली
खुर्शीद – सूरज
शब –रात
उरियाँ –नग्न , निर्वस्त्र
लाज़िम –ज़रूरी
कर्बला –की लड़ाई हज़रत हुसैन ने यज़ीद के अत्याचार के खिलाफ़ कर्बला के रेगिस्तान में लड़ी थी— उनके साथ 72 लोग थे – इनको यज़ीद की सेना ने फरात नदी से पानी भी नहीं लेने दिया- ये सभी 72 लोग इस धर्मयुद्ध में  शहीद हुये थे ( मुहर्रम ) – हुसैन हज़रत मुहम्मद के नाती थे । उनका 6 महीने का बेटा अली असगर भी उनके साथ इस युद्ध में शहीद हुआ । 72 लोगों को मालूम था कि उन्हें इस लड़ाई में बचना नहीं है – ये ज़ुल्म के खिलाफ शहादत की लड़ाई थी ।