हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

गुरुवार, 29 मार्च 2012

कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है .....


कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है
तुम्हारे दिल में शायद दर नहीं है

उसे इस दश्त में क्या ख़ौफ़ होगा
वो अपने जिस्म में होकर नहीं है

इसे लानत समझिये आइनों पर
किसी के हाथ में पत्थर नहीं है

तेरी दस्तार तुझको ढो रही है
तेरे काँधों पे तेरा सर नहीं है

ये दुनिया असमाँ में उड़ रही है
ये लगती है मगर बेपर नहीं है

मियाँ कुछ रूह डालो शायरी में
अभी मंज़र पसेमंज़र नहीं है

मयंक अवस्थी     

सोमवार, 16 जनवरी 2012

ग़ालिब की ज़मीन ( आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना ) पर शायर क्लब फेसबुक में में एक तरही ग़ज़ल


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बस कि तक़दीर है हिन्दू या मुसलमां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

तेरा शेवा है मेरे क़त्ल का सामां होना
मेरा हासिल है तेरा ज़ूद - पशेमां होना

ऐसा लगता है किसी दश्त का शहज़ादा हूँ 
इतना अच्छा भी नहीं घर का बयाबाँ होना

थोड़े ख़ुदसर हैं  मगर दिल से हमारे हैं वो  
उनके इक़रार का पहलू है गुरेज़ाँ होना

ये सियहबख़्त ज़मीं शाम ढले देखेगी 
शब की दहलीज़ पे खुर्शीद का उरियाँ होना

घर मकानो में जो तब्दील हुये इस तरह   
फिर तो लाज़िम है मेरे शहर का ज़िन्दां होना      

कर्बला !! मैं भी यज़ीदों से घिरा हूँ हर सूँ
मुझको मालूम है क्या शै है मुसलमाँ होना

मयंक अवस्थी  

मयस्सर –उपलब्ध
शेवा – शैली style
हासिल – उपलब्धि
ज़ूद –पशेमा – जल्द प्रायश्चित  करने वाला
दश्त – निर्जन
ख़ुदसर –ज़िद्दी
इकरार – सहमति -
गुरेज़ाँ- निस्पृह
सियहबख़्त – काले भाग्य वाली
खुर्शीद – सूरज
शब –रात
उरियाँ –नग्न , निर्वस्त्र
लाज़िम –ज़रूरी
कर्बला –की लड़ाई हज़रत हुसैन ने यज़ीद के अत्याचार के खिलाफ़ कर्बला के रेगिस्तान में लड़ी थी— उनके साथ 72 लोग थे – इनको यज़ीद की सेना ने फरात नदी से पानी भी नहीं लेने दिया- ये सभी 72 लोग इस धर्मयुद्ध में  शहीद हुये थे ( मुहर्रम ) – हुसैन हज़रत मुहम्मद के नाती थे । उनका 6 महीने का बेटा अली असगर भी उनके साथ इस युद्ध में शहीद हुआ । 72 लोगों को मालूम था कि उन्हें इस लड़ाई में बचना नहीं है – ये ज़ुल्म के खिलाफ शहादत की लड़ाई थी ।       

बुधवार, 30 नवंबर 2011

2-ग़ज़लें


ग़ज़ल-1

उन्ही का इब्तिदा से जहिरो –बातिन रहा हूँ मैं
जो कहते हैंकि गुजरे वक़्त का पल –छिन रहा हूँ मैं

मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना श्याम कहता  है
मगर तारीख का सबसे सुनहला दिन रहा हूँ मै

वही अर्जुन मेरे बहुरूप से दहशतज़दा सा  है
कि जिसकी हसरते-दीदार का साकिन रहा हूँ मै 

मेरे भक़्तों को क्या मालूम इक बगुला भगत हूँ मै
कि जमुना में नहाती मछलियाँ भी गिन रहा हूँ मैं

हमारी रुक्मिणी बूढा बताती है हमें हरदम
किसी राधा की आँखों मे सदा कमसिन रहा हूँ मै

सुदर्शन चक्र रखता हूँ बज़ाहिर मुस्कुराता हूँ
मगर शिशुपाल तेरी गालियाँ भी गिन रहा हूँ मैं

छुपी हो बाँसुरी की धुन में मेरी देवकी माँ तुम
कि अपने जन्म से अब तक तुम्हारे बिन रहा हूँ मै    

                                     मयंक अवस्थी

गज़ल – 2

मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ायें ग़र न हों बुनियाद मे , घर टूट जाता है

शिनावर को कोई दलदल नहीं दरिया दिया जाये
जहाँ कमज़र्फ बैठे हों सुखनवर टूट जाता है

अना खुद्दार की रखती है उसका सर बुलन्दी पर
किसी पोरस के आगे हर सिकन्दर टूट जाता है

भले हम  दोस्तो के तंज़ सुनकर मुस्कुराते हों  
मगर उस वक्त कुछ अन्दर ही अन्दर टूट जाता है

मेरे दुश्मन के जो हालात हैं उनसे ये ज़ाहिर है
कि अब शीशे से टकराने पे पत्थर टूट जाता है

संजो रक्खी हैं दिल में कीमती यादें मगर फिर भी
बस इक नाज़ुक सी ठोकर से ये लॉकर टूट जाता है

किनारे पर नहीं ऐ दोस्त मैं खुद ही किनारा हूँ
मुझे छूने की कोशिश में समन्दर टूट जाता है

मयंक अवस्थी

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

निष्काम कर्मयोग की प्रासंगिकता –गीता


निष्काम कर्मयोग की प्रासंगिकता गीता

गीता मनोविज्ञान की पहली (और अंतिम भी) पुस्तक है। यह मनुष्य के  रुग्ण जीवन के लिये वरदान स्वरूप दी गयी विचार- चिकित्सा प्रणाली है । इसका उदगम महाकाव्य महाभारत है ।   
यहाँ हमें यह शोध नहीं करना कि घोर आँगिरस ने कृष्ण को साँख्ययोग सिखाया कि नहीं , न यह कि उपनिषदों की  सार गीता वास्तव में व्यास परम्परा ने युगपुरुष कृष्ण के माध्यम से एक घटना का आलम्बन ले कर महाभारत में आरोपित कर दी और न ये कि आज के जटिल जीवन में धर्म की औचित्यपरता अप्रासंगिक हो चली है । वस्तुत: कर्मयोग के माध्यम से दिया गया  जीवन का समाधान देश, काल और परिस्थिति के बन्धनों से सर्वथा मुक्त है ।और सबसे कीमती है ।
मनुष्य पृकृति की  शेष प्राणियो की तुलना में अधिक परिष्कृत निर्मिति है । अन्य प्राणियो के एकल और समूह्गत व्यवहार लगभग परिभाषित होते हैं ,भोजन , अनुकूलन , प्रतिक्रिया और व्यवहार के संदर्भ में शेष प्राणिजगत की परिधि और विस्तार को मनुष्य ने सही सही परिभाषित किया है, परंतु मनुष्य स्वयं को परिभाषित करें इसके लिये वही मनुष्य अधिकृत हो सकता है जो मनुष्यों  में निर्विवाद श्रेष्ठतम हो । गीता भी किसी और के मुँह से सर्वस्वीकार्य नहीं हो सकती थी सिवाय कृष्ण के और न ही उसके लिये कोई और समय इससे अधिक अनुकूल हो सकता था सिवाय उस क्षण के जब महाभारत युद्ध आरम्भ् होने के पहले अर्जुन की अनुशासित और विरक्त चेतना पर उनका मोह अधिकार करने लगा था ।
कहानी तो एक माध्यम है वस्तुत: गीता हमारे लिये एक अनुपमेय औषधि है । क्योंकि हमारा जीवन अनेक अर्थहीन और निस्सार विश्वासों  की रस्सियों से बाँधा गया है जिनका जीवन के विकास से कोई सम्बन्ध ही नहीं है और बहुधा ये विश्वास प्रणालियाँ  जीवन के सह्ज प्रवाह की गति में बाधा का कार्य करती  हैं । और आवश्यकता है विचार तंत्र में आरोपित इस अर्थहीन अज्ञान को निकलने की । जैसे कम्प्यूटर की यांत्रिक संचरना और प्रोग्रामिंग में बाधा उत्पन्न होने पर हम यांत्रिक और प्रोग्रामिंग के ही समाधान नियोजित करते हैं । वायरस होने पर एंटी वायरस द्वारा समाधन करते है।,  प्रोग्रामिग खराब होने पर रीफार्मेटिंग द्वारा और कोई पुर्ज़ा खराब होने पर उसके विकल्प द्वारा हम इसे पुन: सुचारु करते हैं वैसे ही मनुष्य जो कि पृकति की बनाई हुयी सबसे सशक्त जैविक चेतना है इसके विश्वास-तंत्र की पुनर्निर्मिति (रीफार्मेटिग )  की कीमिया गीता में लिखी है । पृकृति के सभी प्राणी समष्टि के साथ समस्वरता में जीते हैं । मनुष्य का निर्माण भी पृकृति ने जीवन के विकास की श्रंखला में एक विशेष कड़ी के रूप में किया है । प्रत्येक मनुष्य पृक़्रति द्वारा प्रद्त्त गुणो के वशीभूत अपने कर्म करता है और जब वह अपने श्रेय कर्म से गिरता है तो जीवन के साथ पुन: समस्वरता स्थापित करने के लिये मनुष्य जाति को भी उसके अनुकूल  औषिधीय समाधान ईश्वरप्रद्दत्त व्यवस्था गीता  के रूप में उपलब्ध कराया गया है । इसमें मनुष्यमात्र का अधिकार है ।        
गीता का सूत्र है  निष्काम कर्मयोग य़ह सुनने में इतना सरल है कि सहज विश्वास ही  नहीं होता कि यह जीवन के अनंतिम समाधान का अपराजेय सूत्र है । परंतु है ।
   वैसे   हमारे यहाँ देवताओ के पूजन की अनेक विधियाँ हैं । जैसे श्री गणेश पूजा- गौरा पार्वती यानी शैव-शक्ति की पृकृति शक्ति अर्थात आस्था ने अपने मेल  से अपनी रक्षा के लिये एक पुतला बनाया जो बुद्धि  है अर्थात बुद्धि आस्था का मैल है और इसका काम उसकी रक्षा है । यह बुद्धि स्वयं आस्था को शिव से मिलने में बाधा बनती है तो शिव इसका सर काट देते है । परंतु आस्था इसके न होने से दुखी होती है तो शिव इस बुद्धि के ऊपर हाथी का सर लगा देते हैं । हाथी का सर- यानी अपार सूचना बुद्धि के पास है परंतु सवारी चूहे की?! यानी बुद्धि की गति उसकी  तर्क क्षमता पर निर्भर है चूहे का काम हर चीज़ को कुतरना है बुद्धि भी तर्क द्वारा हर बात को कुतरती है । परंतु जब देवताओं में प्रथम पूज्य की स्पर्धा हुयी तो गणेश ने आस्था और शिव की एक परक्रिमा कर के प्रथम पूज्य का दर्जा हासिल कर लिया । तर्क या चूहे की सवारी पर आप बहुत दूर नही जा सकते इसलिये आपकी प्रतिष्ठा है अपनी आस्थाओं और अपने शिव के इर्द गिर्द रहने में । फिर हाथी के दो दाँत दिखाने के ही होते  है इसलिये जब जीवन का महाकाव्य महाभारत श्रीगणेश ने लिखा तो अपना एक दाँत तोड- कर लेखनी बना ली । एक्दंत संकेत देते है कि बुद्धि चेतना के विकास के महाकाव्य लिखे और शहादत दे, न कि दिखाने के दाँत बचाये । इस बुद्धि के देवता की प्रतिमा के संकेतों को आप जब समझ लेते है तो प्रतिमा की प्रासंगिकता सम्पूर्ण हो जाने के बाद इसे विसर्जित कर देते है ।
सावित्री हमारी चेतना की एक अहर्निश शक्ति है । हमारे अन्दर का सत्य ( सत्यवान) अपने अन्धे माता पिता के साथ अपना राज्य ( जीवन का सौन्दर्य ) खो कर रह रहा है( मन अन्धा होता है इसको पिता मानने पर सत्य अज्ञान के जंगल में भटकता है)। काल की गति अहर्निश है इसलिये कि सत्य मरता नही परंतु उसे भ्रम है कि वह मरने जा रहा है । चेतना की प्रच्छन्न शक्ति सावित्री मृत्युबोध के क्षणों में सत्य को काल (समय-बन्धन ) से मुक्त कर लेती है । यह सावित्री की कथा है जो मनवीय चेतना की अपरमित सम्भाव्य  शक्तियों की ओर संकेत करती है ।
हम ज्ञान के धरातल पर त्रिदेव को जानते है । अनंत अंतरिक्ष ब्रह्मा है यह  अचल , स्थिर सर्वव्यापी , अक्षर , गुणहीन और निर्विकार है । समय के दो अवश्यंभावी प्रभाव इसकी क्षरण शक्ति और इसकी निर्माण शक्ति यानी शिव और विष्णु अद्यांत , अगम अगोचर और सर्वव्यापी है । तो  समय और स्थान अर्थात ब्रह्मा विष्णु ,महेश से ये संसार बना हुआ है और गतिशील है ।
सवाल उठता है कि जीवन में इन सारी अलौकिक कथाओ को जानने  और समझने का क्या प्रयोजन है । यम नचिकेता की कहानी, ध्रुव की कहानी, श्वेतुकेतु की कहानी इतने उपनिषद पढ कर क्या होना है ?! सच यह है कि पसमंज़र मे हमारी चेतना मुक्ति और विराम खोज रही है । तो आइये गीता का पाठ कीजिये  आपको इसके बाद वेदों को  पढने की अथवा  किसी कर्मकाण्ड की कोई आवश्यकता नही है।
आप पृकृति की निर्मिति है और आपके सभी कार्य समष्टि के अनुशासन में होने के कारण दैवीय ही है । कामना या तृष्णा के कारण जीवन में दु:ख है । आप निश्चित परिणाम चाहते है जबकि आपको कर्मों के चुनाव का अधिकार दिया गया है जो कि पृकृति में किसी अन्य प्राणी को नहीं दिया गया । परिणाम समष्टि स्वयं निर्धारित करती है । विभिन्न प्रकार के आस्तिक विश्वास सुंनने के कारण आपके पास निश्चयात्मक बुद्धि नहीं  है। गीता का सूत्र है कर्मफल ईश्वर को समर्पित करके करने योग्य कर्म करना । क्योंकि हमारे कर्मो के पीछे मूल शक्ति तृष्णा य अभीप्सा की है , हम एक निश्चित परिणाम की प्रत्याशा में बँध कर कर्म करते है परंतु हमारे प्रत्येक प्रायोजित कर्म के साथ साथ अनेक अन्य घटनायें इसी कालखण्ड में समांतर चलती हैं जिनकी गति हमारे कर्म के परिणामो को प्रभावित करती है और हम सभी घट्नायें नहीं गिन सकते । शेष सभी घट्नाये अपनी समग्रता में दैव कही जाती हैं और ये हमारे कर्म के परिणाम को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती हैं । चूँकि  कोई भी कर्म वाच्छित फल देने पर अनुभूति में पहले से संचित तृष्णा को गिरा देता है और आप की चेतना क्षणांश की मुक्ति का अनुभव करती  है इसलिये यदि आप निष्काम कर्म करते हैं तो इस कर्म के मूल में तृष्णा न होने के कारण आपकी भावदशा उस मुक्ति को सतत अनुभव करती रहती है जो अन्यथा क्षणांश के लिये ही मिलता है । सबसे बड़ी बात इसमें कोई उलटा फलरूप  दोष नहीं और फिर आपका अतृष्ण कर्म स्वस्थ और निष्कलुष भी होता है जो कि समष्टि के हित हेतु समष्टि द्वारा नियोजित कर्म होता है । अनंत इच्छायें पूर्ण होने पर आपकी चेतना जो सुख अनुभूत कर सकती  है वह इस निष्काम कर्मयोग द्वारा आपको स्थायी रूप से मिल जाता है ।
सुनने में असान होने के बावज़ूद निष्काम कर्मयोग अपना वर्तुल स्वयं है । यदि कोई यह कहता है कि मैने तो बहुत निष्काम भाव से कर्म किया लेकिन मुझे तो कोई सुख नही मिला तो आप स्वय सोचिये कि सुख पाने की लालसा से किया गया कर्म क्या निष्काम की श्रेणी में आता है?!
तृष्णा बहुत कुछ छीन रही है । यह विराट से आपको जुड़ने नहीं देती और हजारो अर्थहीन विश्वास इसने आपकी चेतना में बना रखे है यह आपको या तो भविष्य केन्द्रित रखती है या अतीत केन्द्रित और दोनो ही आपके वर्तमान को नष्ट  कर रहे हैं । आप ईश्वर को पाना चाहते हैं , आप अंतरिक्ष मे जाना चाहते हैं , आप धनवान बनना चाहते हैं आप मृत्यु नही चाहते । परंतु सच यह है कि आप सतत ईश्वरस्वरूप  ही हैं ठीक वैसे ही जैसे आपका एक एक रोम आप ही है वैसे ही आप न्यूनतम और अधिकतम ईश्वर ही है । और कुछ आप हो ही नहीं सकते। यदि कोई मोबाइल काम कर रहा है तो फिर वह  टावर  से जुड़ा है तो आपकी भी मन बुद्धि इन्द्रियाँ यदि कार्यरत है तो ईश्वर आपको प्राप्त ही है । आपकी पृथ्वी अंतरिक्ष में है इसके आगे पीछे ऊपर नीचे सब ओर अंतरिक्ष ही है  इसलिये आप सदा अंतिरक्ष में ही हैं । धन से बिस्तर खरीद सकते हैं नींद नहीं, पुस्तक खरीद सकते है ज्ञान नहीं ,प्रसाधन खरीद सकते हैं सौन्दर्य नही ,धन की सामर्थ्य सीमित है इसलिये बिस्तर नहीं उसका प्रतिफलन नींद, पुस्तक नहीं उसका प्राबल्य ज्ञान, और प्रसाधन नही स्वास्थ्य और मुक्ति की भाव-दशा आपका असली धन है और यदि यह है तो आप धनवान ही हैं । आप मृत्यु नहीं  चाहते परंतु अप्रमेय आत्मा की म्रत्यु नहीं होती क्यो कि इसका जन्म भी नहीं होता । दूसरी बात यदि शरीर की मृत्यु पृकृति ने नहीं बनाई होती तो शायद मनुष्य अमरत्व से अधिक मृत्यु की कामना करता ।
हम मन्दिर जाते है तो अपनी सुविधा यानी अपने जूते उतारते है अपना अहं तिरोहित करते हैं यानी सर झुकाते है । जो प्रसाद मिलता है स्वीकार करते है नहीं देखते कि किसी और को हमसे जियादा मिला या कम । लेकिन बाहर निकलते ही हम इस छोटी सी कार्यशाला से कुछ भी नही सीखते । बाहर भी आसमान की छत वाला ईश्वर का ही मन्दिर है यहाँ हम फिर वही सुविधा ,अहं और सापेक्षता धारण कर लेते है । सारे तीर्थ दुर्गम स्थानो पर बनाये गये क्योकि ये  जीवन सीखने की प्राकृतिक कार्यशालायें है । कुछ दिनों का शरीर का कष्ट आस्था की भावना से समाज के सभी वर्गो के साथ साथ चलना और भोजन भूगोल के साथ अनुकूलन जीवन को ही सिखाने की प्रविधि है जो तीर्थयात्राओ के मूल में छिपी हुयी है परन्तु शायद इस वाणिज्यिक जगत मे हम इसका मूल प्रयोजन भूल गये हैं ।
निष्काम कर्मयोग आपकी रुग्ण चेतना हेतु वह औषधि है कि यह भविष्योन्मुख और अतीतजीवी चित्त को शुद्ध वर्तमानजीवी बना देती है यह आपकी चेतना के  लिये रिफ्रेश और डिलीट कमाण्ड सा है अर्थहीन स्मृति को नष्ट  कर देता है और औचित्यपरक को जगा देता है । योगारूढस्य यानी योग मे आरूढ होने पर आपको जीवन की नैसर्गिक गति पुन: प्राप्त हो जाती है ठीक वैसे ही जैसे अश्वारूढ होने पर अश्व की गति से आप गंतव्य तक शीघ्र पहुँचते है वैसे ही योगारूढ होने पर आप जीवन के श्रेय साधन तक शीघ्र पहुँचते हैं । इसके लिये इतना ही करना है कि कर्मफल ईश्वर को समर्पित कर मर्यादोचित कर्म करने है ।
आपकी मूल स्मृति चैतन्य है इसमे विचार नही हैं । परंतु मूल स्मृति का अभाव होने पर आप किसी न किसी  विचार की सत्ता मे जी रहे होते हैं और  विचार तानाशाह है इसके इख़्तियार में आपका जीवन कैदी जैसा है । विश्वास के तंत्र में जो धार्मिक और सामाजिक शिक्षा आपको बार -बार दी गयी आप पूरा जीवन उसी में बँध  कर जीते हैं जबकि आपका अपना अनुभव सत्य का सबसे बड़ा पैमाना है । फिर भी हममें से कुछ ही सत्य के निर्धारण के लिये अनुभूति के धरातल का सम्यक प्रयोग करते हैं ।गीता में  कर्मयोग के रूप में अप्रतिम और विलक्षण रूप में  जीवन के रहस्य की कुँजी प्रदान की गयी है ।
मयंक अवस्थी