हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

बुधवार, 30 नवंबर 2011

2-ग़ज़लें


ग़ज़ल-1

उन्ही का इब्तिदा से जहिरो –बातिन रहा हूँ मैं
जो कहते हैंकि गुजरे वक़्त का पल –छिन रहा हूँ मैं

मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना श्याम कहता  है
मगर तारीख का सबसे सुनहला दिन रहा हूँ मै

वही अर्जुन मेरे बहुरूप से दहशतज़दा सा  है
कि जिसकी हसरते-दीदार का साकिन रहा हूँ मै 

मेरे भक़्तों को क्या मालूम इक बगुला भगत हूँ मै
कि जमुना में नहाती मछलियाँ भी गिन रहा हूँ मैं

हमारी रुक्मिणी बूढा बताती है हमें हरदम
किसी राधा की आँखों मे सदा कमसिन रहा हूँ मै

सुदर्शन चक्र रखता हूँ बज़ाहिर मुस्कुराता हूँ
मगर शिशुपाल तेरी गालियाँ भी गिन रहा हूँ मैं

छुपी हो बाँसुरी की धुन में मेरी देवकी माँ तुम
कि अपने जन्म से अब तक तुम्हारे बिन रहा हूँ मै    

                                     मयंक अवस्थी

गज़ल – 2

मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ायें ग़र न हों बुनियाद मे , घर टूट जाता है

शिनावर को कोई दलदल नहीं दरिया दिया जाये
जहाँ कमज़र्फ बैठे हों सुखनवर टूट जाता है

अना खुद्दार की रखती है उसका सर बुलन्दी पर
किसी पोरस के आगे हर सिकन्दर टूट जाता है

भले हम  दोस्तो के तंज़ सुनकर मुस्कुराते हों  
मगर उस वक्त कुछ अन्दर ही अन्दर टूट जाता है

मेरे दुश्मन के जो हालात हैं उनसे ये ज़ाहिर है
कि अब शीशे से टकराने पे पत्थर टूट जाता है

संजो रक्खी हैं दिल में कीमती यादें मगर फिर भी
बस इक नाज़ुक सी ठोकर से ये लॉकर टूट जाता है

किनारे पर नहीं ऐ दोस्त मैं खुद ही किनारा हूँ
मुझे छूने की कोशिश में समन्दर टूट जाता है

मयंक अवस्थी

6 टिप्‍पणियां:

  1. आप के ग़ज़लें डाइरैक्ट दिल से निकली हुई बातें कहती हैं। शिनावर वाला शेर, शायद ही कोई हो, जिसे पसंद न आये। आप से मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है।

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  2. मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
    वफ़ायें ग़र न हों बुनियाद मे , घर टूट जाता है
    khubsurat sher mubarak ho

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  3. मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
    वफ़ायें ग़र न हों बुनियाद मे , घर टूट जाता है

    शिनावर को कोई दलदल नहीं दरिया दिया जाये
    जहाँ कमज़र्फ बैठे हों सुखनवर टूट जाता है

    अना खुद्दार की रखती है उसका सर बुलन्दी पर
    किसी पोरस के आगे हर सिकन्दर टूट जाता है

    भले हम दोस्तो के तंज़ सुनकर मुस्कुराते हों
    मगर उस वक्त कुछ अन्दर ही अन्दर टूट जाता है

    मेरे दुश्मन के जो हालात हैं उनसे ये ज़ाहिर है
    कि अब शीशे से टकराने पे पत्थर टूट जाता है

    संजो रक्खी हैं दिल में कीमती यादें मगर फिर भी
    बस इक नाज़ुक सी ठोकर से ये लॉकर टूट जाता है
    बेहद संजीदा लबो लहजा .....बाकमाल शायरी ....आपको हमेशा अपना आदर्श बनाकर ही शायरी के कठोर धरातल पर क़दम बदाय है मैंने .......आप जैसे अज़ीम फनकार को सलाम......ग़ज़ल बहुत खूबसूरत है और आपने ग़ज़ल में इंग्लिश के अलफ़ाज़ का प्रयोग कर उसे और खूबसूरत बना दिया है

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    1. मुझे ज़िन्दगी ने दोस्त भी दिये और भाई भी लेकिन शायद दोस्त और भाई दोनो जो हुये हैं ऐसे नाम 2 ही हैं और उनमें से एक नाम " हादी जावेद" है --आपकी अहमियत मेरे दिल में क्या है !! हम दोनो एक दूसरे को दिल में हमेशा महसूस करते हैं !! मैं भी ईश्वर से यही दुआ कर रहा हूँ कि यह इम्तिहान की घड़ी जल्द ख़त्म हो मैं फिर से अपने शायर क्लब में शिरकत कर सकूँ --मयंक

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  4. सुनील कुमार भाई !! ह्रदय से आभार !! शेर आपको पसन्द आया -गज़ल कहना सार्थक हुआ !! --मयंक

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  5. नवीन भाई !! पिछले एक बरस से हम आप रोज़ करीब 1 घण्टा फोन पर बात करते हैं --और ग़ज़ल पब्लिश होने से पहले सुनने वाले आप ही होते हैं !! अपने भाई !! के साथ होने से बहुत बल मिलता है !! ईश्वर की क्रपा है --मयंक

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