हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

हम ख़ाक़नशीनों की ठोकर पे ज़माना है

गुरुवार, 29 मार्च 2012

कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है .....


कोई दस्तक कोई ठोकर नहीं है
तुम्हारे दिल में शायद दर नहीं है

उसे इस दश्त में क्या ख़ौफ़ होगा
वो अपने जिस्म में होकर नहीं है

इसे लानत समझिये आइनों पर
किसी के हाथ में पत्थर नहीं है

तेरी दस्तार तुझको ढो रही है
तेरे काँधों पे तेरा सर नहीं है

ये दुनिया असमाँ में उड़ रही है
ये लगती है मगर बेपर नहीं है

मियाँ कुछ रूह डालो शायरी में
अभी मंज़र पसेमंज़र नहीं है

मयंक अवस्थी     

2 टिप्‍पणियां:

  1. इसे लानत समझिये आइनों पर
    किसी के हाथ में पत्थर नहीं है

    तेरी दस्तार तुझको ढो रही है
    तेरे काँधों पे तेरा सर नहीं है
    .. बहुत खूब!

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  2. मयंक जी आपके अहसासों की यह रचना "कोई दस्तक कोई ठोकर नही हैं" अत्यंत अहसासों से भरपूर व आशापूर्ण है....आपने इस रचना में जो दस्तक को ठोकर से भेद किया है वो वाकई काबिल-ए-तारीफ है....
    ऐसी ही रचना अहसास को भी आप शब्दनगरी के माध्यम से पढ़ व अपनी रचनाओं को भी लिख सकतें है...

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